
‘कटरा बी आर्ज़ू’ राही मासूम रज़ा का एक बेहद चर्चित उपन्यास है. इसमें कहानी तो एक कटरे की है लेकिन एक कटरे के इर्द-गिर्द ही पाठक को पूरा देश और अपने समय की कहानी नजर आती है. पाठक को लगत है कि ‘कटरा बी आर्ज़ू’ इलाहाबाद के एक छोटे से मोहल्ले का सच नहीं बल्कि पूरे देश की व्यथा बयां करता है. कहानी के पात्र बिल्लो और देशराज का सपना भी करोड़ों भारतीयों की तरह ही है एक अपनी छत होने का. और वे भी लाखों-करोड़ों लोगों की तरह अपने इस सपने को सच करने के लिए दिन-रात हाड़तोड़ मेहनत कर रहे हैं. लेकिन उनका सपना कगार होने के मुहाने पर जाकर चकनाचूर हो जाता है. कहानी बड़ी दिलचस्प है. आप भी पढ़ें राजकमल प्रकासन से प्रकाशित ‘कटरा बी आर्ज़ू’ उपन्यास का एक अंश-
शम्सू आंसू पोंछकर चश्मा साफ करने लगे. और अब्दुल हक को याद करने लगे जो पाकिस्तान में ऐश कर रहा है.
पाकिस्तान में यही तो एक खास बात है. जिसकी खबर आती है, यही आती है कि वह वहां ऐश कर रहा है, कि दो हजार से कम किसी की तनख़्वाह नहीं, कि वहां की नदियों में पानी की जगह पैसा बहता है. अब्दुल हक के बारे में भी उन्होंने यही सुना था. जबकि हकीकत यह थी कि अब्दुल उस ममलिकते इसलामिया यानी पाकिस्तान में उसी तरह भूखा था जिस तरह शम्सू मियां भूखे थे. पाकिस्तान अब भी उसका वतन नहीं हुआ था. वह आज भी वहां शरणार्थी था. लालूखेत की एक झुग्गी में रह रहा था और उर्दू बोल रहा था और आम की फसल में आम के लिए तरस रहा था. और सावन की झड़ी के लिए उसकी आत्मा प्यासी थी. और वह संगम पर डुबकी लगाने के लिए हुड़ुक रहा था. और अपनी रामलीला और हिन्दू-मुस्लिम दंगों को याद करके रो रहा था. और उसके बच्चे उसका दर्द नहीं समझ पा रहे थे, क्योंकि वह पाकिस्तान में पैदा हुए थे और वहीं पले-बढ़े थे. उन्हें पता ही नहीं था कि सावन के बादल कैसे होते हैं, और कोयल कैसे बोलती है, और आमों पर किस रंग का बौर आता है, और रामलीला क्या होती है, और हिन्दू-मुसलमान दंगे कैसे होते हैं…क्योंकि पाकिस्तान में तो केवल शीया-सुन्नी दंगे होते हैं. यह एक तरह से अच्छा ही था कि शम्सू मियां को यह बात नहीं मालूम थी और वह यह सोच-सोचकर खुश थे कि अब्दुल हक़ वहां खुश है. पर जो वह आज यहां होता तो क्या वह महनाज़ के दहेज की घड़ी देश से ख़रीदवाते? इस सवाल पर वह रुक गए. उन्होंने देश की तरफ देखा जो चुपचाप खाने में लगा हुआ था. शम्सू मियां ने अपने-आपसे कहा, ‘काहे न खरिदवाते भाई! सागिर्द भी बेटे से कम नहीं होता’…और यह जवाब देकर उन्हें लगा कि वह बूढ़े तो जरूर हो गए हैं पर अकेले नहीं हैं.
उस दिन वह घर पहुंचे तो उसी नशे में थे.
“का बात है मामूं?” बिल्लो ने पूछा. वह शम्सू मियां को कटरे के रिश्ते से मामू ही कहा करती थी.
“आज हम महनाज की सादी तै कर दिया है. लड़के की उमिर सत्ताइस-अट्ठाइस से जियादा नहीं है. एक स्कूल में पढ़ाता है अल्ला के फजल से.”
सकीना ने चौंककर देखा.
“साइकिल, घड़ी और रेडियो कहां से दीहो?” सकीना ने पूछा, “तोर में एही खराबी है. बेला सोचे-समझे जबान दे आए होगे. अब का हम्में बेचके दहेज बनाओगे? केह मारे कि घर में बेचे लाएक कोई और चीज तो देखाई ना दे रही.”
“आप परेसान काहे को होती हैं ममानी? भगवान साइकिल और घड़ी सबका बन्दोबस्त कर देंगे, कहीं-न-कहीं से.” बिल्लो ने कहा.
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महनाज़ रोने लगी. पर किसी ने उसकी तरफ न देखा. सकीना बोली, “भगवान की साइकिल की फकटरी होती तब थोड़े परेसानी होती धीया! पर भगवान बिचारू का करें? अब बचे अल्ला मियां. ऊ न घड़ी बाँधें, न रेडियो सुनें, न साइकिल पर चढ़ें. त उन्हें भला काहे की याद आए कि महनाज माटीमिली का बिआह एही तीन चीजन के मारे टलता जा रहा.”
बिल्लो ने कहा, “आप तो बेला वजहे कोसे लगती हैं. अैयसा करते हैं, पर मिकैनिक साहब को पता न चले, नहीं तो चिल-पों मचाये लगेंगे कि हाउसफंड में काहे को हाथ डाला. साइकिल का बन्दोबस्त हम कर देंगे जोड़-बटोर के.” यह कहते-कहते वह खड़ी हो गई, “अच्छा, हम चल रहें. मास्टर बद्रुल आते होंगे लांडरी का हिसाब लिक्खे.”
बद्रुलहसन का नाम सुनकर बावरचीखाने में चुपचाप बैठी हुई शहनाज मुस्कुरा दी. और बिल्लो चल पड़ी.
लांडरी में आते ही उसने देखा कि जगदम्बाप्रसाद एक दीवार की तरफ मुंह किए बैठे पेशाब कर रहे हैं.
“हम देख रहें कि आप इ महल्ले की दु-चार दिवार गिराए बिना ना मानिएगा.” बिल्लो ने कहा.
जगदम्बाप्रसाद घबराकर खड़े हो गए. झेंपी हुई हँसी के साथ बोले, “का बताएं बिल्लो. इधिर कुछ जियास्ती हो गई है पिसाब में. डाक्टर साहेब बोले हैं कि नमक और चीनी कम कर दो.”
“चीनी-नमक जरूर कम करिए पर घूस खाना एकदम्मे छोड़ दिजिए. ठीक हो जाइएगा.” बिल्लो ने कहा.
“हम्में घूस खाये का सौक ना है. पर करें का! साढ़े सत्तानबे रुपये तनख्वाह में का खायें, का पीयें, का ले परदेस जाएं. हमारी तनख्वाह ले लिया कर पहली की पहली और चला दिया कर हमरा घर. भगवान का पाकेट एडीसन मत बन. समझी! बरदी पर इसतिरी किया कि नहीं?”
“कर दिया.” बिल्लो ने कहा.
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जगदम्बाप्रसाद भी दुकान में आ गए. बिल्लो ने इस्त्री की हुई वर्दी उनकी तरफ बढ़ाते हुए कहा, “एक रुपया.”
“का?” जगदम्बाप्रसाद हैरान रह गए, “अभईं पिछले हफ्ते तो आठ आने रेट रहा.”
“और पिछले हफ्ते दाल-चावल का का रेट रहा?” बिल्लो ने पूछा.
“हम तो ना देंगे एक रुपया.”
“आपकी मरजी.”
यह कहकर बिल्लो ने वर्दी को गुजुल-मुजुल दिया.
“अरे-अरे-अरे. इ का कर रही है?”
“अपनी इसतिरी वापिस लिया है.” बिल्लो ने कहा, “कहीं और जाके इसतिरी करवा लिजिए. जनता लांडरी में आज सबेरे से आठ आना फी कपड़ा रेट लग गया है इसतिरी का. बनयाइन का चार आना.”
“तो तुम बताया क्यों नहीं था?”
“हम रेडियो सिलोन ना हैं कि चिल्लाते रहें दिन-भर,” बिल्लो चमकी. “हिन्दी-उर्दू में लिखवाके टाँग दिया है रेट.”
“ठीक है देख लेंगे.”
“अरे, जाव-जाव. बहुत देखा है देखेवाले. अंखिया फोड़ ना देंगे देखेवालन की!”
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FIRST PUBLISHED : September 01, 2023, 14:59 IST