
हाइलाइट्स
दुष्यंत कुमार के ग़ज़ल संग्रह ‘साये में धूप’ पहली बार 1975 में प्रकाशित हुआ था.
पिछले 48 साल में इसके 74 पेपरबैक और 67 हार्ड बाउंड संस्करण आ चुके हैं.
‘साये में धूप’ संग्रह की अब तक 6 लाख से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं.
Dushyant Kumar Birth Anniversary: 1975 का साल देश में आपातकाल का साल था. पूरे हिन्दुस्तान में व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश था. चरमरा रही देश की व्यवस्था को लेकर नौजवानों से लेकर बड़े-बूढ़ों में सरकार के खिलाफ गुस्सा भरा था. आलम ये था कि जगह-जगह धरने-प्रदर्शन और जुलूस निकाले जा रहे थे. हां, देशभर में हो रहे इन धरने-प्रदर्शनों में एक आम बात थी और वह थी, इनमें लगने वाले नारे और नारों से लिपि-पुती तख्तियां-
नौजवानों के होंठों पर बस ये ही नारे थे-
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मिरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।
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कैसे आकाश में सूराख नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीअत से उछालो यारो
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वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है
माथे पे उस के चोट का गहरा निशान है
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1975 के दरम्यान ये नारे नौजवानों में जोश भरने का काम कर रहे थे. आपातकाल में सरकार के खिलाफ विरोध की चिंगारी बने ये नारे असल में नारे नहीं बल्कि दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों के चंद शेर थे. और इनमें से अधिकांश शेर उनके ग़ज़ल संग्रह ‘साये में धूप’ में संकलित थे. कहा जाता है कि ‘साये में धूप’ केवल एक ग़ज़ल संग्रह नहीं था, बल्कि उस समय के नौजवानों के लिए गीता थी और आज भी है, जो युवा पीढ़ी में श्रीकृष्ण के उपदेशों की तरह जोश भरने का काम कर रही है. 1975 ही क्या, आज भी कहीं कोई धरने-प्रदर्शन या सिस्टम के खिलाफ आवाज बुलंद होती है या फिर चुनावी दंगल में विरोधी दल के खिलाफ आवाज मुखर होती है तो उसके स्वर में दुष्यंत की शेर ही सुनाई पड़ते हैं.
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दुष्यंत कुमार की ‘साये में धूप’ की ग़ज़लों को इतनी लोकप्रियता हासिल हुई कि उसके कई शेर कहावतों और मुहावरों के तौर पर लोगों की जुबान पर चढ़ गए. दुष्यंत कुमार के शेर उस समय पिछले और शोषित वर्ग की नुमानंदगी करते थे. लोग उनकी ग़ज़लों में अपना सुनहरा भविष्य देखते थे.
निदा फ़ाज़ली उनके बारे में एक जगह लिखते हैं, “दुष्यंत कुमार की नजर उनके युग की नई पीढ़ी के गुस्से और नाराजगी से सजी बनी है. यह गुस्सा और नाराजगी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मों के खिलाफ नए तेवरों की आवाज थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है.”
Image- Radhakrishna Prakashan
दुष्यंत कुमार के ग़ज़ल संग्रह ‘साये में धूप’ का पहली बार प्रकाशन 1975 में ही हुआ था और यह संग्रह प्रकाशित हुआ राजकमल प्रकाशन समूह से. यह जानकार आश्चर्य होगा कि ‘साये में धूप’ की पॉपुलैरिटी में लगभग 50 साल बाद रत्ती भर कमी नहीं आई है. यह किताब 1975 में जितनी चर्चित थी आज भी उतनी ही चर्चित और लोकप्रिय है. राजकमल प्रकाशन समूह से मिली जानकारी के मुताबिक, ‘साये में धूप’ वर्तमान में 73वां संस्करण प्रकाशित हुआ है और अब तक इसकी 6 लाख से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं.
दुष्यंत कुमार के ग़ज़ल संग्रह ‘साये में धूप’ की कई ग़ज़ले विभिन्न राज्यों के पाठ्यक्रम में शामिल हैं. ‘साये में धूप’ नामक ग़ज़ल एनसीईआरटी की 11वीं कक्षा के पाठ्यक्रम में लगी हुई है. ये ग़ज़ल इस प्रकार है-
कहां तो तय था चिरागां हर एक घर के लिए
कहां चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए
यहां दरखतों के साये में धूप लगती है
चलो यहां से चलें और उम्र भर के लिए
न हो कमीज तो पांओं से पेट ढंक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए
ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नजारा तो है नजर के लिए
वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए
तेरा निजाम है सिल दे जुबान शायर की
ये एहतियात जरूरी है इस बहर के लिए
जिएं तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।
इस ग़ज़ल में दुष्यंत कुमार ने राजनीतिज्ञों के झूठे वायदों पर व्यंग्य कसा है. राजनेता वादा करते हैं कि वे हर घर खुशियों से रोशन करेंगे, लेकिन यहां तो पूरे शहर में विरानी और अंधेरा छाया हुआ है. व्यवस्था का आलम ये है कि अब तो हरे-भरे पेड़ों के साये में भी धूप लगती है. यानी जो आश्रयदाता हैं उनके यहां भी सिर्फ और सिर्फ कष्ट ही मिलते हैं. इस पूरी ग़ज़ल में दुष्यंत कुमार का व्यवस्था के खिलाफ विरोध झलकता है.
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इसमें दुष्यंत कुमार कहते हैं कि लोग शोषित और गरीबी का जीवन जीने को विवश हैं और इनमें सिस्टम के खिलाफ विरोध का भाव खत्म हो गया है. अगर इनके पास कपड़े नहीं हैं तो ये अपने पैरों को मोड़कर अपने पेट ढंक लेंगे, लेकिन उफ्फ तक नहीं करेंगे. ये लोग परिस्थिति के अनुसार खुद को ढाल लेते हैं. ऐसे लोग सिस्टम के लिए मुफीद होते हैं. क्योंकि इन लोगों के कारण ही नेता का राज आराम से चलता है.
ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नजारा तो है नजर के लिए
यहां दुष्यंत कुमार लिखते हैं कि अगर मनुष्य भगवान नहीं बन सकता, किसी के दुख-दर्द दूर नहीं कर सकता तो कोई बात नहीं. उसके पास इनसान बनने का सपना तो है. हम अपनी इनसानियत के माध्यम से,अपने अच्छे कर्मों से मनुष्यता का प्रचार तो कर सकते हैं. हम इनसान बनकर एक सभ्य समाज का सपना तो देख सकते हैं.
दुष्यंत कुमार की रचनाओं में गरीबों के प्रति सहानभूति झलकती है. दुष्यंत के शेर मानों किसी शोषित का दर्द को बयां कर रहे हैं. वे अपनी रचनाओं में आम आदमी की आवाज उठाते हैं. शासन व्यवस्था में फैली निष्क्रियता और भ्रष्टाचार पर करारा तंज कसते हैं.
‘साये में धूप’ की उर्दू को लेकर उठा ऐतराज
दुष्यंत कुमार ने अपनी ग़ज़लों में उर्दू शब्दों का इस्तेमाल इफरात में किया है. हालांकि, इन शब्दों की शुद्धता और प्रयोग को लेकर उर्दू जानकारों ने आपत्ति भी दर्ज की. अपने उर्दू ज्ञान के बारे में स्वयं दुष्यंत कुमार पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं-
मैं स्वीकार करता हूं-
– कि ग़ज़लों को भूमिका की जरूरत नहीं होनी चाहिए, लेकिन एक कैफियत इनकी भाषा के बारे में जरूरी है. कुछ उर्दू-दाँ दोस्तों ने कुछ उर्दू शब्दों के प्रयोग पर एतराज किया है. उनका कहना है कि शब्द ‘शहर’ नहीं ‘शह’ होता है, ‘वजन’ नहीं ‘वन’ होता है.
– कि मैं उर्दू नहीं जानता, लेकिन इन शब्दों का प्रयोग यहां अज्ञानतावश नहीं, जानबूझकर किया गया है. यह कोई मुश्किल काम नहीं था कि ‘शहर’ की जगह ‘नगर’ लिखकर इस दोष से मुक्ति पा लूं, किंतु मैंने उर्दू शब्दों को उस रूप में इस्तेमाल किया है, जिस रूप में वे हिंदी में घुल-मिल गए हैं. उर्दू का ‘शह’ हिंदी में ‘शहर’ लिखा और बोला जाता है; ठीक उसी तरह जैसे हिंदी का ‘ब्राह्मण’ उर्दू में ‘बिरहमन’ हो गया है और ‘ऋतु’ ‘रुत’ हो गई है.
– कि उर्दू और हिंदी अपने-अपने सिंहासन से उतरकर जब आम आदमी के पास आती हैं तो उनमें फर्क कर पाना बड़ा मुश्किल होता है. मेरी नीयत और कोशिश यह रही है कि इन दोनों भाषाओं को ज्यादा से ज्यादा करीब ला सकूं. इसलिए ये ग़ज़लें उस भाषा में कही गई हैं, जिसे मैं बोलता हूं.
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Tags: Books, Hindi Literature, Hindi poetry, Hindi Writer, Literature
FIRST PUBLISHED : September 01, 2023, 15:59 IST